बिलासपुर 21 नवंबर 2025।बिलासपुर कानून के राज की दुहाई देने वाली व्यवस्था कभी-कभी ऐसे कारनामे पेश कर देती है, जिन्हें देखकर न्याय की देवी भी अपनी आंखों पर बंधी पट्टी ढीली कर दे। बुधवार की सुबह कोतवाली थाने में एक ऐसा ही ‘सुपर स्पेशल एपिसोड’ देखने को मिला, जिसने कानून की परिभाषा ही नहीं, उसकी कीमत भी बदल डाली, मामला 2012 से फरार चल रहे एक स्थायी वारंटी का था, जिसे पकड़ने में तो पुलिस को 13 साल लग गए,लेकिन उसे छोड़ने में मात्र 20 हजार रुपये और कुछ मिनट,कहानी की शुरुआत होती है सुबह-सुबह, जब प्रधान आरक्षक और आरक्षक ने फरार वारंटी को उसके एक साथी समेत थाने ला पटका,थाने के बाहर खड़े लोगों को लगा“वाह,आज कानून ने देर से ही सही, काम तो किया।” लेकिन उन्हें क्या पता था कि थाने के अंदर ‘नियम-कानून’ नहीं, बल्कि ‘नए ऑफर्स’ और ‘कैश स्कीम’ का माहौल चल रहा है,जैसे ही खबर आरोपी के परिजनों तक पहुंची, वे थाने दौड़े चले आए,और बस यहीं से शुरू हुआ वह अध्याय, जिसे लोग आम भाषा में ‘सौदेबाजी’ कहते हैं। आरोप है कि थाना परिसर के भीतर ही नेगोशिएशन की पूरी प्रक्रिया चली“इतने साल का वारंट है, भाव थोड़ा बढ़ाइए,“इतना तो नहीं होगा साहब, आखिरी दाम बताइए,और आखिर में ‘20 हजार रुपये’ वह जादुई राशि निकली, जिसे देखते ही कानून भी शायद मुस्कुरा उठा,डील फाइनल होते ही वारंटी थाने के गेट से ऐसी सहजता से बाहर निकला जैसे किसी पूजा-पाठ के बाद माथे पर तिलक लगाकर निकला हो। न कागजी कार्रवाई हुई, न गिरफ्तारी का उल्लेख, न पूछताछ,सीधे, मुक्त पथ,लेकिन असली मसाला तो तब शुरू हुआ जब बाहर निकलते ही वारंटी ने स्वयं आरक्षकों पर 20 हजार लेने का आरोप जड़ दिया, यानी गुनाहगार भी अब खुलकर बयान दे रहे हैं,बस व्यवस्था ही खामोशी ओढ़कर बैठी है।शहर भर में अब सवाल यह नहीं कि आरोपी कैसे छोड़ा गया,बल्कि यह कि कोतवाली में कौन-सी ‘नई नीति’ लागू हो गई है?“स्थायी वारंट पेमेंट ऑन द स्पॉट, इंस्टेंट रिलीज,”कुछ लोग तंज कसते हुए कह रहे हैं,“थाने में अब एफआईआर नहीं, ऑफर लेटर मिलता है,”“जिसके खिलाफ वारंट है, उसे डरने की जरूरत नहीं…,बस जेब में कैश होना चाहिए,”कानूनविदों का कहना है कि इस तरह के मामले न्याय व्यवस्था की जड़ों को कमजोर करते हैं, लेकिन जनता का कहना कुछ और है,“कानून मजबूत होने से ज्यादा जरूरी है,काउंटर पर किसकी पकड़ मजबूत है!”इस घटना ने पुलिस की छवि पर तो सवाल उठाए ही हैं, साथ ही यह भी समझा दिया है कि,कानून के राज से ज्यादा असर ‘नकद-राज’ का है।बिलासपुर में लोग अब थाने को मंदिर, मस्जिद या गुरुद्वारे की तरह नहीं देख रहे,बल्कि उसे एक ऐसी जगह मान रहे हैं, जहां कानून नहीं,बल्कि रेट-लिस्ट चलती है।और अंत में बस एक ही सवाल हवा में तैर रहा है“कानून से बचना मुश्किल है… या कानून को मना लेना आसान?
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